SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 160] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 को ऐसा लगता है कि अरे, ऐसे विकल्प किसलिए? परन्तु फिर विचार को अन्तर्मुख करके आत्मा को खोजने पर उसे ख्याल में आता है कि अहा! इस विकल्प के समय भी विकल्प को जाननेवाला 'मेरा ज्ञान' विकल्प से भिन्न कार्य कर ही रहा है। वह ज्ञान 'विकल्प मैं नहीं हूँ, ज्ञान ही मैं हूँ।'-ऐसा बंटवारा करता है; इसलिए उसे विकल्प भी ज्ञानस्वभाव के रस के जोर से धीरे-धीरे क्षीण होते जाते हैं और अन्ततः ज्ञान का झनझनाहट करती ऐसी घटिका आ जाती है कि (समयमात्र में) धड़ाम से विकल्प को पार करके उपयोग का निज शुद्धस्वरूप में मिलन हो जाता है। बस! यही है अनुभव-दर्शन ! यही है सम्यक्त्व की अपूर्व घड़ी ! यही है मोक्ष के सुख का मङ्गल प्रारम्भ!! ऐसा अनुभव कौन करता है? आत्मा स्वयं ही कर्ता होकर अपनी सम्यक्त्वादि पर्याय को करता है-ऐसा उसका कर्तास्वभाव है। अनुभव में विकल्परहित निर्मलपर्याय भी सहजभाव से प्रगटती है, ऐसा आत्मा का पर्यायस्वभाव है। अत: उसका कर्ता तो आत्मा स्वयं ही है। हाँ, अनुभूति करते समय "मैं निर्मलपर्याय करूँ अथवा निर्मलपर्याय मेरा कार्य"-ऐसा कर्ता-कर्म भेद का कोई विकल्प या विचार जीव को नहीं होता। उस वक्त तो कर्ता-कर्म-क्रिया के भेद से पार होकर आत्मा अपने एकत्व में ही झूमता है... सत्मात्र अनुभूति होने पर भी, उसमें अनन्त गुण की गम्भीरता भरी हुई है, अनन्त गुण के स्वाद का एक साथ उसमें संवेदन होता है। अहा! कैसा कल्पनानीत स्वाद होगा वह !! वाह ! स्वानुभवी सन्तजन ही उसे जानते हैं Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy