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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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वचन से वह अवर्णनीय है; वेदन में आता है, परन्तु वाणीगम्य नहीं होता।
जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान में, कह सके नहीं वह भी श्री भगवान जब; उस स्वरूप को अन्य वाणी तो क्या कहे?
अनुभवगोचर मात्र रहा वह ज्ञान जब॥ - ऐसा आत्मस्वरूप धर्मीजीव को चतुर्थगुणस्थान में ज्ञान में अनुभवगोचर (स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष) हो गया है; वाणी में भी जो न आ सका, वह उसके वेदन में आ गया है। वाह रे वाह! धन्य है वह दशा! धन्य है वह जीव!! चैतन्य के अगाध चमत्कार का उसने साक्षात्कार कर लिया है; उसने अपने अन्तर में परमात्मा का दर्शन कर लिया है। __ 'आत्मा कैसा होगा?' या आत्मा ऐसा होगा?' इस प्रकार कल्पनारूप नहीं, परन्तु मैं ऐसा ही हूँ' इस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभूतिरूप उसका ज्ञान निःशङ्क हो जाता है। उसका स्वानुभव-प्रमाण ऐसा प्रबल है कि और किसी प्रमाण को खोजने की जरूरत नहीं रहती। जगत के अन्य सामान्य जीव देखे या न देखे, पर वह स्वयं अपनी अनुभूति को साक्षात् जानता है, इसलिए सम्यक्त्ववन्त जीव नि:शङ्क तथा निर्भय होते हैं।'
जिसने अनुभवज्ञान के द्वारा अपने शुद्धस्वरूप की अपरम्पार महिमा पहचान ली, उसका चित्त अब संसार के किसी पदार्थ के प्रति ललचता नहीं है। अरे, उस आराधक जीव के मोक्ष साधते
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