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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [159 और राग को भिन्न करके भेदज्ञान करता जाता है, और उसे आत्मा का स्वरूप केवल ज्ञान और आनन्दमय ही भासता है। चैतन्यवस्तु के वेदन में राग कहाँ से हो? ऐसा वास्तविक निर्णय किया, तब फिर राग और ज्ञान को भिन्न होने में कितनी देर? अन्दर में निर्विकल्प होकर, चैतन्यतत्त्व में उपयोग लगाने पर, रागविहीन अतीन्द्रिय आनन्दमय परिणमन हो जाता है। अहा! आत्मा अपूर्व भावरूप हो जाता है। चैतन्यभाव में तद्रूप अनन्त शक्ति के मंथन द्वारा आत्मा की अगाधता में-गहराई में पहुँचकर मुमुक्षु चैतन्यतत्त्व को ग्रहण कर लेता है और परभावों से अलग पड़ जाता है। ज्ञान-दर्शन-आनन्द -प्रभुता आदि अनन्त शक्ति का पिण्डस्वरूप मेरा शुद्धतत्त्व है; वह ज्ञान-दर्शन आदि किसी भी गुण में राग के साथ तन्मयरूप नहीं है। ऐसी अनन्ती शक्ति के अभेद एक पिण्डरूप चैतन्यमात्र स्वतत्त्व ही मैं हूँ-इस प्रकार धर्मी, श्रद्धा में लेकर अनुभूति करता है। अहो! ज्ञान और आत्मा—ऐसे गुण-गुणी भेद का द्वैत भी जिस अनुभूति में नहीं रहता, उस निर्विकल्प अनुभूति की शान्ति की क्या बात? अनन्तगुण की निर्मलतासहित एकरूप वस्तु अनुभूति में प्रकाशमान है। इस प्रकार सभी तरह से अपने आत्मस्वरूप की सन्मुखता के परिणाम मुमुक्षु को होते हैं; अगाधा महिमा से भरपूर आत्मस्वरूप की सन्मुखता के सिवाय बहिर्मुख अन्य कोई भी उपाय सम्यग्दर्शन के लिये नहीं है, नहीं है, नहीं है। ज्ञानी होने के पूर्व अभ्यास के प्रारम्भ काल में जिज्ञासु जीव Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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