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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
पर्याय में शुद्धता होना, आनन्द होना, वह तो उपादेय है। मुमुक्षु की आत्मा की भावना में, उसकी महिमा में, उसकी शुद्धि की भावना में ज्ञान और राग की भिन्नता का अभ्यास होता जाता है। चारों ओर से ज्ञान और राग की भिन्नता देखता है। राग और ज्ञान की भिन्नता उसके वेदन में आती जाती है और उसके अन्तर में ऐसी चोट लग जाती है कि रागादिभाव ज्ञान से विरुद्ध भासते हैं; उन रागादि में उसको कहीं भी जरा-सी भी शान्ति मालूम नहीं होती; वह राग की अशान्ति में से किसी भी प्रकार बाहर निकलने का प्रयत्न करता है... एवं चैतन्य की शान्ति का बारबार रटन करता है। अभी विकल्प होते हुए भी वह विकल्प में नहीं झूलता परन्तु ज्ञानरस में ही झूलता है; और चैतन्यरूप स्ववस्तु को ग्रहण करके ज्ञान को निर्विकल्प कर डालता है, तब समग्र जगत का सम्बन्ध टूटकर आत्मा विश्व के ऊपर तैरता है। जगत से भिन्न स्वयं अपने में रह जाता है-इसका नाम है आत्म-अनुभूति; इसका नाम हैसम्यग्दर्शन!
पहले मुमुक्षु जीव ने विचारधारा में भी राग से भिन्न आत्मा का निर्णय किया है; परलक्ष्य से होनेवाले रागादिभाव मेरा स्वरूप नहीं है; उससे भिन्न प्रकार का ज्ञानस्वभावी मैं हूँ।
ज्ञानी ज्ञानभाव में राग का वेदन करता ही नहीं; राग से भिन्न ज्ञानभाव का ही वेदन करता है। राग स्वयं दुःख है, उसमें से सुख कैसे प्राप्त हो? और उसमें ज्ञानी को एकत्वबुद्धि कैसे हो? राग से ज्ञान की भिन्नता का वेदन करते होने से ज्ञानी, राग को नहीं करता; ज्ञानी की ऐसी पहचान के द्वारा यह जीव अपने भावों में भी ज्ञान
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