________________
www.vitragvani.com
156]
[सम्यग्दर्शन : भाग-6
झुकती हुई अद्भुत धारा बहने लगती है, और आत्म-सन्मुखी विचारधारा के बल से उसका वर्तन भी उसी के अनुकूल होती है। उसकी सभी रहन-सहन में आत्मघुन की धाराएँ अविरत बहती हैं। उसकी धारा का प्रवाह आत्माभिमुख बहता है। भूमिका -अनुसार शुभ-अशुभपरिणाम होते हैं, उसके बीच भी आत्मा की धुन अटूट रहती है; उसको आत्मा की सच्ची आवश्यकता लगी है, इसलिये बीच में अन्य कोई भावों का रस मुख्य नहीं हो पाता। अन्य सभी रसों को गौण बनाकर आत्मरस को मुख्य करता जाता है।
अनुभवदशा के पूर्व जीव को अनेक प्रकार से आत्मस्वरूप का बल और उसकी महिमा सम्बन्धी विचार उठते हैं। उसमें विकल्प की मुख्यता नहीं होती; विकल्प से वह दूर हटता जाता है
और आत्मा की गहराई में उतरता जाता है। जैसे-जैसे ज्ञान गहरा उतरता जाता है, वैसे-वैसे चैतन्यभाव की अधिक-अधिक महिमा दिखाई देती है, और उस प्रकार की शान्ति का वेदन होता है। शान्ति के दिखने से उसमें उसकी चाहना बढ़ती जाती है और इस चाहना की पराकाष्ठा होने पर वह जीव निर्विकल्प अनुभूतिरूप परिणत हो जाता है। इसलिए ज्ञानी, आत्मस्पर्शी भाव से कहते हैं कि 'हे जीव! तू आत्मा में रुचि लगा!' ___ मैं सबको देखनेवाला, फिर भी सबसे भिन्न; विकल्प को जाननेवाला, फिर भी स्वयं निर्विकल्प—ऐसे भेदज्ञान के भाव का घोलन उसे रहा करता है।
जो दृष्टा है दृष्टि का, जो जानता है रूप। अबाध्य अनुभव जो रहे वह है जीवस्वरूप॥
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.