________________
www.vitragvani.com
148]
[सम्यग्दर्शन : भाग-6
संसार से विरक्त होकर मुनि होऊँ और स्वरूप में ही लीन होकर पूर्ण सुखमय बन जाऊँ-ऐसी अन्तरङ्ग भावना निरन्तर होती है। सर्वज्ञस्वभाव का और वस्तु में क्रमबद्ध परिणमन का भी उसे भलीभाँति निर्णय वर्तता है। जहाँ तक पूर्ण पद प्राप्त न हो, तब तक भेदज्ञान चालू है और पूर्णता के लक्ष्य से शुरुआत की है, उसकी साधना चालू है, वह थोड़े ही समय में पूर्ण पद को अवश्य पायेगा ही। - यह सम्यग्दर्शन का प्रताप है।
जय सम्यग्दर्शन
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.