________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग -6 ]
सम्बन्धी बाह्य कार्यों में भी जुड़ा हुआ होता है, उस सम्बन्धी अशुभपरिणाम भी होते हैं - परन्तु उनमें अनन्त रस नहीं होता। बाहर के कार्य तो अज्ञानी के तथा सम्यग्दृष्टि के स्थूलरूप से समान लगते हैं परन्तु अन्तर के अभिप्राय में तथा परिणाम के रस में उन दोनों में अत्यन्त ही अन्तर होता है ।
[147
अज्ञानी को चैतन्यसुख के स्वाद की तो अनुभूति हुई नहीं, इसलिए कहीं अन्यत्र वह सुख मानता है, और जहाँ सुख मानता है, वहाँ आत्मबुद्धि करता ही है । इसलिए अज्ञानी - देह वह मैं, पर के कार्य मैं करता हूँ तथा पर में से सुख आता है - ऐसा भ्रम से समझता है, परन्तु ज्ञानी को वह भ्रम सर्वथा छूट गया होने से उसके अन्तरङ्ग आचरण में एक बहुत बड़ा अन्तर पड़ गया होता है, जो कि बाह्यदृष्टि से दृष्टिगोचर नहीं होता ।
द्वेष हैं,
ज्ञानी को स्वरूप के अस्तित्व का और उसमें पर की नास्ति का भलीभाँति ज्ञान होने से वह अपने को अपनेरूप और पर को पररूप यथावत् जानता है; इसलिए पर के साथ एकत्वबुद्धि का बन्धन तो उसे होता ही नहीं । चारित्र - अपेक्षा से जितने रागउतना बन्धन होता है परन्तु वह अल्प है, उससे अनन्त संसार नहीं बढ़ता। जबकि अज्ञानी को शुभभाव होता हो, तो भी उस राग से भिन्न चैतन्य को न जानता होने से उसे मिथ्यात्व के कारण अनन्त संसार खड़ा है ।
चौथे गुणस्थान में जीव को एक बार शुद्धोपयोगपूर्वक स्वरूप का वेदन हो गया है, वह उसे विस्मृत नहीं होता और बारम्बार वैसे निर्विकल्प उपयोग के लिये उसे भावना रहा करती है तथा कब
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.