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________________ www.vitragvani.com 146] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 अब सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् उसका वर्तन तथा विचारधारा किस प्रकार की होती है, वह देखते हैं जब जीव को सम्यग्दर्शन होता है, तब पूर्व में किसी समय न आया हो, ऐसा अपूर्व आनन्द प्रगट होता है। आत्मा का अनुभव होने पर अपने को और पर को बराबर भिन्न जानता है और अपने पर से भिन्नपने की प्रतीति उसे चौबीसों घण्टे रहती है। वह जगत के परज्ञेयों को भी पहले की अपेक्षा अपूर्व रीति से देखता है, क्योंकि पर को वास्तव में पररूप पहले कभी नहीं जाना था; अब पर में मेरेपन की भ्रान्ति मिट गयी है; इसलिए पर को जानते हुए उससे विरक्त रहता है; वह परभाव का कर्ता नहीं होता परन्तु उससे भिन्न चेतना द्वारा ज्ञाता ही रहता है। चैतन्यसुख का स्वाद चख लिया होने से, अब पर में कहीं सुखबुद्धि या इष्टपने की बुद्धि स्वप्न में भी नहीं होती। वह स्वसमय और परसमय को भलीभाँति अनुभव -सहित भिन्न जानता है। उसे केवलज्ञान का बीज प्रगट हो गया है, अतीन्द्रिय आनन्द का अंकुर भी उगा है; उसकी दृष्टि में सम्पूर्ण आत्मा का स्वीकार हो गया है; उसे अनन्त गुणों के निर्मल अंश से भरपूर अनुभूति निरन्तर वर्तती है। अभी जितनी अपूर्णता या रागद्वेष बाकी है, उन्हें भी ज्ञानी स्वयं का अपराध जानता है। राग को जानने पर भी ज्ञान, राग से भिन्न ही रहता है। उसका बाह्य वर्तन यथापदवी होता है। जैसे कि वीतराग परमात्मा तथा निर्ग्रन्थ गुरुओं के स्वरूप की पहिचान, उनका बहुमान, जिनवाणी का स्वाध्याय, धर्मात्मा-साधर्मियों के प्रति प्रेम, बारम्बार आत्मस्वरूप का मनन उसे होता है तथा गृहकार्य और व्यापार-धन्धा या राजपाट इत्यादि Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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