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________________ www.vitragvani.com 140] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 आत्मा के सर्वज्ञस्वभाव की अद्भुतता इस विश्व में अनन्त जीव, अनन्त अजीव पुद्गल, उन प्रत्येक में अनन्त गुण-पर्यायों की विचित्रता का पार नहीं है। ऐसे विचित्र अनन्तानन्त ज्ञेय, उन सबका केवलज्ञान एक साथ पार पा जाता है; अनन्त द्रव्य हैं, अनन्त क्षेत्र है, अनन्त काल है और अनन्त भाव हैं-इन समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को, ज्ञान अपनी अचिन्त्य -अद्भुत परम सामर्थ्य से एक समय में राग-द्वेष के बिना जानता है-ऐसा ज्ञानस्वभावी आत्मा है। उसकी प्रतीति करे तो ही सर्वज्ञ -अरिहन्तदेव का सच्चा स्वीकार हो सकता है, क्योंकि सर्वज्ञ का ऐसा ज्ञानस्वभाव प्रगट है-ऐसे केवलज्ञान की दिव्यमहिमा लक्ष्य में आने पर, उसके फल में अवश्य सम्यग्दर्शन होता है। केवलज्ञान की यह महिमा कहीं केवली भगवान को नहीं समझाते, परन्तु जिसे अपना हित करना है, जिसे आत्मा का स्वरूप पहिचानना है, ऐसे भव्य जीव को ज्ञान का शुद्धस्वरूप बतलाते हैं । उस स्वरूप को पहिचानते ही राग को उल्लंघन कर, वह जीव ज्ञानस्वभाव की सन्मुखता द्वारा अद्भुत ज्ञान-श्रद्धानरूप से परिणमित होने लगता है। इसलिए यह सम्यग्दर्शन पाने की विधि है। ___ 1- जिसे सर्वज्ञता की अद्भुतता लगे, उसे राग की अद्भुतता नहीं लगती। ___ 2-जिसे सर्वज्ञता की अद्भुतता लगे, वह जिसमें से सर्वज्ञता आयी, उसमें जाता है। 3-जिसे सर्वज्ञता की अद्भुतता लगे, वह राग से भिन्न पड़कर ज्ञानरूप हो जाता है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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