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________________ www.vitragvani.com 126] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 देने का भाव मुझे न हो। मेरा आत्मा दुःख से छूटे और जगत के जीव भी दुःख से मुक्त हो - ऐसी दयाभावना होती है। 3. प्रशान्त : कषाय बिना के शान्तपरिणाम होते हैं; मानअपमानादि के छोटे-छोटे प्रसङ्गों में बारबार क्रोध हो जाये, या अनुकूलता के प्रसङ्ग में हर्ष से फूला नहीं समाये-ऐसा उसे नहीं होता। दोनों प्रसङ्ग में विशेष क्रोध एवं हर्ष से रहित शान्त-गम्भीर परिणामवाला होता है। 4. प्रतीतवन्त : देव-गुरु-धर्म के प्रति तथा साधर्मी के प्रति उसको श्रद्धा होती है; बात-बात में साधर्मी के ऊपर सन्देह-शङ्का करना, वह श्रावक को शोभा नहीं देता; स्वयं का अपमानादि हो, प्रतिकूल प्रसङ्ग आवे तथा दूसरे का मानादि बढ़ जाये तो भी धर्म में सन्देह नहीं करता, दृढ़ प्रतीति रखता है। 5. पर दोष को ढंकनेवाला : अरे रे! दोष में तो जगत के जीव डूबे हुए ही हैं; वहाँ पर के दोष क्या देखना? मुझे तो मेरे दोष मिटाने हैं। कोई साधर्मी से या अन्य जीव से दोष हो जाये तो, उसकी रक्षा करके उसका दोष कैसे दूर होवे वैसा उपाय करना उचित है, परन्तु दोष देखकर निन्दा करना उचित नहीं है। 6. पर-उपकारी : धर्मबुद्धि द्वारा तथा तन-मन-धनादि द्वारा भी परजीवों का उपकार करते हैं। जगत के जीवों का हित हो, साधर्मियों को देव-गुरु-धर्म के सेवन में सर्व प्रकार से अनुकूलता हो और वे निराकुलता से धर्म का आराधन करें-ऐसी उपकार - भावना श्रावक को होती है। 7. सौम्यदृष्टिवन्त : उनकी दृष्टि में सौम्यता होती है। जैसे, Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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