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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
अपेक्षा से प्रमाण इत्यादि भेदों को झूठा अर्थात् अभूतार्थ कहा है। टीकाकार ने व्यवहार को अभूतार्थ बतलाने के लिये झूठा शब्द प्रयोग किया है।
प्रमाण-नय-निक्षेप, जो कि प्रथम भूमिका में स्वरूप का निर्णय करने में साधक थे, उनके विकल्प भी अनुभव में बाधक है, वहाँ राग की तो क्या कथा? नय-प्रमाण आदि के विकल्प में रुकने से भी स्वानुभव नहीं होता, तो दूसरे स्थूल राग की क्या बात? वह तो अनुभव में 'असत्' है ही; शुद्धात्मा का जो स्वरूप नहीं, वे सभी भाव, स्वानुभव से बाहर है, अर्थात् अभूतार्थ है, अर्थात् झूठे हैं। ववहारो अभूयत्थो अर्थात् समस्त व्यवहार अभूतार्थ है। यही बात यहाँ स्पष्ट की है। अनुभव के भाव में समस्त विकल्पों का अभाव बतलाने के लिये उन्हें 'झूठा' कहा है। दूसरे रागादि भाव तो अनुभव में नहीं, वे तो जीव के स्वरूप से कहीं दूर हैं और अन्दर के नवतत्त्व सम्बन्धी या आत्मा सम्बन्धी जो सूक्ष्म विकल्प, वे भी जीवस्वरूप के अनुभव से बाहर हैं। __ प्रमाण से आत्मा ऐसा, शुद्धनय से ऐसा, उसके द्रव्य-गुणपर्याय ऐसे, उसके उत्पाद-व्यय-ध्रुव ऐसे-ऐसे विचार के काल में जो विकल्प थे, वहाँ तक शुद्धात्मा साक्षात् अनुभव में आया नहीं था और जहाँ उपयोग को राग में से हटाकर, अन्तरस्वरूप में झुकाकर, उसका साक्षात् अनुभव किया, वहाँ वे कोई विकल्प नहीं रहे। वे विकल्प अभूतार्थ होने से शुद्ध वस्तु के अनुभव में उनका प्रवेश नहीं हुआ।शुद्ध वस्तु में तो विकल्प नहीं और उसके अनुभवरूप पर्याय में भी विकल्प नहीं, ऐसी अनुभवदशा के जोर
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