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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
स्वभाव के अनुभवशील और विभाव के क्षयकरणशीलऐसे शुद्धात्मा का अनुभव करो
समयसार के कलश में स्वानुभव के अद्भुत वर्णन द्वारा अध्यात्मरस के कलश भर-भरकर मुमुक्षुओं को पिलाया है। जैसे दूधपाक में जहर शोभा नहीं देता; इसी प्रकार चैतन्य के स्वानुभव में विकल्प शोभा नहीं देता। अत्यन्त सुन्दर चैतन्यवस्तु... वह तो अनुभव से ही शोभित होती है। अहा! जिस स्वानुभव की बात सुनने पर भी मुमुक्षु को उसका उत्साह जागृत होता है... और वीर्योल्लास विकल्प में से हटकर स्वानुभव की ओर ढलता है-वह अनुभवदशा कैसी है, उसका रोमाञ्चकारी वर्णन।
शुद्ध आत्मा के अनुभवकाल में कैसी स्थिति होती है? वह कहते हैं
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्। किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेस्मिननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव॥॥
चैतन्यधाम-स्वयंसिद्ध वस्तु के अनुभव के प्रत्यक्ष स्वाद में कोई विकल्प शोभा नहीं देता। अहा! स्वानुभूति का जो अतीन्द्रिय आनन्द, उसमें विकल्प की आकुलता शोभा नहीं देती। मीठे दूधपाक में क्या ज़हर की बूँद शोभा देती है ? नहीं। उसी प्रकार चैतन्य की अनुभूति के आनन्द का जो मीठा स्वाद, उसमें विकल्प
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