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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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चिन्तवन होगा। जिसे अभी पाप की तीव्र कषायों से भी निवृत्ति नहीं; देव-गुरु की भक्ति, बहुमान, साधर्मियों का प्रेम इत्यादि अत्यन्त मन्दकषाय की भूमिका में भी जो नहीं आया; वह अकषाय चैतन्य का निर्विकल्प ध्यान कहाँ से करेगा? पहले समस्त कषाय का (शुभ अशुभ का) रङ्ग अन्दर से उड़ जाये... जहाँ उसका रङ्ग उड़ जाये, वहाँ उनकी अत्यन्त मन्दता तो सहज ही हो जाये और फिर चैतन्य का रङ्ग चढ़ने पर उसकी अनुभूति प्रगट होती है। वरना परिणाम को एकदम शान्त किये बिना ऐसा का ऐसा अनुभव करना चाहे तो नहीं होता। अहा! अनुभवी जीव की अन्दर की दशा कोई अलग होती है! ___ जब उपयोग स्वानुभव में जुड़ता है, तब निर्विकल्पदशा कहने में आती है, क्योंकि उस समय उपयोग का जुड़ान विकल्प में नहीं; उपयोग, निजस्वरूप में ही एकाग्र हुआ है। यद्यपि निर्विकल्प अनुभव के समय भी सरागी जीव को अन्दर अबुद्धिपूर्वक विकल्प तो हैं; राग का कार्य विकल्प है, वह वहाँ पड़ा है, परन्तु उपयोग उसमें नहीं है और वह ऐसा सूक्ष्म है कि वह अपने को और दूसरे स्थूल ज्ञानी को ख्याल में नहीं आ सकता। सामान्य छद्मस्थ को ख्याल में आवे, ऐसे स्थूल विकल्प वहाँ नहीं है; इसलिए वहाँ निर्विकल्पता ही कहने में आती है।
यह सम्यक्त्व की व स्वानुभव की बहुत अच्छी बात है-जिसे लक्ष्यगत करने से जन्म-मरण मिट जाये-ऐसी यह अलौकिक बात है। यह स्वानुभव-कला ही संसार-समुद्र से तिरने की कला है। अन्य सब पढ़ाई चाहे आती हो, चाहे न आती हो; इस स्वानुभव -कला को नहीं जाननेवाला अन्य अनेक कलाएँ जानता हो, तो भी
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