________________
www.vitragvani.com
94]
[सम्यग्दर्शन : भाग-6
बुद्धिपूर्वक के सब राग-द्वेष छूट गये होते हैं, मात्र चैतन्य गोलाआनन्द के सागर से उल्लसित होता-देह से भिन्न अनुभव में आता है; इसलिए ऐसे ध्यान के समय तो श्रावक को भी मुनि के समान गिना है। उस ध्यान में ज्ञानादि की निर्मलता भी बढ़ती जाती है। परिणाम की स्थिरता भी बढ़ती जाती है, शान्ति बढ़ती जाती है।
ज्ञानी, संसार में गृहस्थपने में रहे हों, राग-द्वेष-क्रोधादि क्लेश -परिणाम अमुक होते हों, परन्तु उन्हें उनका काल विस्तृत नहीं होता; संसार के चाहे जैसे क्लेश प्रसङ्ग या प्रतिकूलता के प्रसङ्ग आवें, परन्तु जहाँ चैतन्यध्यान की स्फूरणा हुई, वहाँ वे सब क्लेश कहीं भाग जाते हैं; चाहे जैसे प्रसङ्ग में भी उसके श्रद्धा-ज्ञान घिर नहीं जाते। जहाँ चिदानन्द हंस का स्मरण किया, वहीं दुनिया के समस्त क्लेश दूर भाग जाते हैं तो उस चैतन्य के अनुभव में तो क्लेश कैसा? उसमें तो अकेला आनन्द है... अकेली आनन्द की धारा बहती है। इसलिए कहते हैं कि अरे जीवों! उस चैतन्यस्वरूप के चिन्तन में क्लेश तो जरा भी नहीं है और उसका फल महान है। उसके चिन्तवन में महान सुख की प्राप्ति होती है तो उसे ध्यान में क्यों चिन्तवन नहीं करते? और क्यों बाहर ही उपयोग को भ्रमाते हो? ज्ञानी को दूसरा सब भले दिखायी दे परन्तु अन्दर चैतन्य की जडी-बूटी हाथ में रखी है। वह संसार के जहर को उतार डालनेवाली जड़ी-बूटी है; उस जड़ी-बूटी को सूंघने से इसकी संसार की थकान क्षणभर में उतर जाती है।
जीव को शुद्धात्मा के चिन्तवन का अभ्यास करना चाहिए। जिसे चैतन्य के स्वानुभव का रङ्ग लगे, उसे संसार का रङ्ग उतर जाता है। भाई! तू अशुभ और शुभ दोनों से दूर हो, तब शुद्धात्मा का
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.