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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
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बढ़कर ज्ञान को अन्तर में झुकाकर अनुभव करने से विकल्प छूट जाता है, ज्ञान का ज्ञानरूप परिणमन होता है । उसे आनन्द कहो, उसे सम्यग्दर्शन कहो, उसे मोक्षमार्ग कहो, उसे समय का सार कहो - सब उसमें समाहित है।
आत्मा का रस कैसा है ?
आत्मा का रस अकेला विज्ञानरूप है; धर्मी जीव, विज्ञानरस के ही रसिया हैं; राग का रस, वह आत्मा का रस नहीं; जिसे राग का रस हो, उसे आत्मा के विज्ञानरस का स्वाद अनुभव में नहीं आता। राग से भिन्न ऐसे वीतराग - विज्ञानरसरूप आत्मा स्वाद में आवे, तब ही सम्यग्दर्शन है । विज्ञानरस कहो या अतीन्द्रिय आनन्द कहो—सम्यग्दर्शन में उसका स्वाद अनुभव में आता है।
मैं शुद्ध हूँ - ऐसा जो शुद्धनय का विकल्प — उसमें अटकना वह क्या है ?
वह मिथ्यादृष्टि का नयपक्ष है । सम्यग्दर्शन तो उस नयपक्ष से पार है। विकल्प की आकुलता के अनुभव में शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं है; सम्यग्दर्शन में शुद्ध आत्मा का निर्विकल्प अनुभव है। शुद्ध आत्मा का अनुभव करना, वह अन्तर्मुख भावश्रुत का काम है, वह कहीं विकल्प का काम नहीं । विकल्प में आनन्द नहीं, उसमें तो आकुलता और दुःख है; भावश्रुत में आनन्द और निराकुलता है।
दूसरे विकल्पों से तो शुद्ध आत्मा का विकल्प अच्छा है न ?
धर्म के लिये तो एक भी विकल्प अच्छा नहीं है; विकल्प की
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