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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
श्रुतज्ञान ने क्या किया?
पहले जो नय पक्ष के विकल्पों की आकुलता होती थी, उससे भिन्न होकर वह श्रुतज्ञान भी आत्मसन्मुख हुआ; ऐसा करने से निर्विकल्प अनुभूति हुई, परम आनन्दसहित सम्यग्दर्शन हुआ, भगवान आत्मा प्रसिद्ध हुआ; उसे धर्म हुआ और वह मोक्ष के पंथ में गमनशील हुआ।
आत्मा कैसा है?
आत्मा ज्ञानस्वभाव है, 'ज्ञानस्वभाव' में रागादि नहीं आते, ज्ञानस्वभाव में इन्द्रिय या मन का अवलम्बन नहीं आता; इसलिए जहाँ मैं ज्ञानस्वभाव'- ऐसे आत्मा का निर्णय किया, वहाँ श्रुत का झुकाव इन्द्रियों से तथा राग से परान्मुख होकर ज्ञानस्वभाव की ओर झुका। इस प्रकार ज्ञानस्वभाव की ओर झुकने से जो प्रत्यक्ष साक्षात् निर्विकल्प अनुभव हुआ, वही सम्यग्दर्शन है, वही सम्यग्ज्ञान है, वही भगवान आत्मा की प्रसिद्धि है। यह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान, वह आत्मा की पर्याय है, वे कहीं आत्मा से भिन्न नहीं हैं।
ज्ञानस्वभाव के निर्णय द्वारा अनुभव होता है ?
हाँ; ज्ञानस्वभाव का सच्चा निर्णय जीव ने कभी नहीं किया। 'ज्ञान के बल से' (नहीं कि विकल्प के बल से) सच्चा निर्णय करे तो अनुभव हुए बिना नहीं रहे। जिसके फल में अनुभव न हो, वह निर्णय सच्चा नहीं। विकल्प के काल में मुमुक्षु का जोर उस विकल्प की ओर नहीं परन्तु 'मैं ज्ञानस्वभाव हूँ'-ऐसा निर्णय करने की ओर जोर है और ऐसे ज्ञान की ओर के जोर से आगे
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