________________
www.vitragvani.com
82]
[सम्यग्दर्शन : भाग-4
जाति ही आत्मा के स्वभाव से भिन्न है, फिर उसे अच्छा कौन कहे ? जैसे दूसरे विकल्प में एकत्वबुद्धि, वह मिथ्यात्व है; उसी प्रकार शुद्ध आत्मा के विकल्प में एकत्वबुद्धि, वह भी मिथ्यात्व है। समस्त विकल्पों से पार ज्ञानस्वभाव को देखना-जानना-अनुभव करना, वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है-वही समय का सार है; विकल्प तो सब असार है। भले शुद्ध का विकल्प हो, परन्तु उसे कोई सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान नहीं कहा जा सकता; उस विकल्प द्वारा भगवान का साक्षात्कार नहीं होता। विकल्प, वह कहीं चैतन्य दरबार में प्रवेश करने का दरवाजा नहीं है। ज्ञानबल से 'ज्ञानस्वभाव का निर्णय' वही चैतन्य दरबार में प्रवेश करने का दरवाजा है।
ज्ञान की प्राप्ति कहाँ से होती है ?
ज्ञान की प्राप्ति सर्वज्ञस्वभावी आत्मा में से होती है, ज्ञान की प्राप्ति विकल्प में से नहीं होती। अन्दर शक्ति में जो पड़ा है, वही आता है; बाहर से नहीं आता। अन्दर की निर्मल ज्ञानशक्ति में अभेद होने पर, पर्याय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप परिणमित हो जाती है।
सम्यग्दर्शन के लिये पहली शर्त क्या है ?
पहली शर्त यह है कि 'मैं ज्ञानस्वभाव हूँ' - ऐसा श्रुतज्ञान के अवलम्बन से निश्चय करना। सर्वज्ञ भगवान ने समवसरण में दिव्यध्वनि द्वारा जो भावश्रुत का उपदेश दिया, उस अनुसार श्रीगुरु के समीप श्रवण करके अन्दर भावश्रुत द्वारा 'ज्ञानस्वभाव, वह शुद्ध आत्मा है'-ऐसा निर्णय करके, गौतमादि जीव, भावश्रुतरूप परिणमित हुए; इसलिए भगवान ने भावश्रुत का उपदेश दिया'
___Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.