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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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__क्या यह देह मैं हूँ? क्या लक्ष्मी मैं हूँ? क्या यह कुटुम्ब इत्यादि मैं हूँ?–नहीं; ये तो सब संयोगी पदार्थ हैं, ये तो आते हैं और वापस चले जाते हैं; आत्मा तो सदा कायम असंयोगी वस्तु है। किसी संयोग में उसका सुख नहीं। सुखस्वरूप तो आत्मा स्वयं है। बाहर में से सुख खोजने जाने पर स्वयं अपने सुखस्वभाव को भूल जाता है। भाई! तेरा सुख तो कोई दूसरे में से आयेगा? सुखस्वरूप तो आत्मा स्वयं है, स्वयं अपने को जानने से आनन्द होता है परन्तु इसके लिये इस दुनिया की दरकार छोड़कर चैतन्यसमुद्र में डुबकी लगा। ____ अरे! तूने दुनिया को देखा, परन्तु देखनेवाले ऐसे तूने स्वयं को ही नहीं देखा! पर की प्रसिद्धि की कि 'यह है' परन्तु अपनी प्रसिद्धि नहीं की कि 'यह जाननेवाला मैं हूँ।' जाननेवाले को जाने बिना आनन्द नहीं होता। अहा! चैतन्यतत्त्व ऐसे आनन्द से भरपूर है कि जिसके स्मरणमात्र से भी शान्ति मिलती है तो उसके सीधे अनुभव के आनन्द की तो क्या बात ! __ तेरा आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द से भरपूर भगवान है, वह मूर्त -द्रव्यों से भिन्न है। राग से भिन्न है। मूर्तद्रव्यों का तू पड़ोसी हो जा। पड़ोसी अर्थात् भिन्न; चैतन्यप्रकाश की अपेक्षा से राग भी अचेतन है, वह भी चैतन्य के साथ एकमेक नहीं परन्तु भिन्न है। शरीर और राग सबको एक ओर-एक बाजू रखकर इस ओर से सबसे भिन्न तेरे चैतन्यतत्त्व को देख।अरे! आत्मा के अनुभव का ऐसा सरस योग और भेदज्ञान का ऐसा उत्तम उपदेश, यह प्राप्त करके अब एक बार आत्मा को अनुभव में ले; प्रयत्न करके आत्मा को देहादिक से भिन्न जान।
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