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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
उसे जानने के लिये एक बार तो ऐसी दरकार कर कि मरण जितने कष्ट आवें तो भी उसके अनुभव का प्रयत्न छूटे नहीं ।
अरे! जगत की चाहना छोड़कर चैतन्य की चाहना तो कर ! इन जगत् के पदार्थों को जानने में तुझे कौतूहल होता है परन्तु इन सबका जाननेवाला तू स्वयं कौन है ? उसे जानने में तो जिज्ञासा कर। अनन्त काल से नहीं जाना हुआ ऐसा यह गुप्त चैतन्यतत्त्व, उसे जानने के लिये अन्दर खोज तो कर । अहा ! आनन्द से विलसित चैतन्यतत्त्व देखते ही परद्रव्य के प्रति तेरा मोह छूट जायेगा; 'परद्रव्य मेरा' – ऐसी तेरी मोहबुद्धि छूट जायेगी और तुझे तेरा चैतन्यतत्त्व, परद्रव्यों से भिन्न विलसता - शोभता दिखायी देगा। भगवान ने जैसा उपयोगस्वरूप आत्मा देखा है, वैसा ही आत्मा तेरे अन्तर में विलस रहा है। वह तुझे देह से भिन्न अनुभव में आयेगा और उसे देखकर तू आनन्दित होगा।
'मरकर भी तू ऐसे तत्त्व को देख' अर्थात् ऐसा उग्र प्रयत्न कर कि मरण जितनी प्रतिकूलता खड़ी हो तो भी देह से पृथक् आत्मा को अन्तर में देखने की धगश छूटे नहीं । 'मरकर भी' अर्थात् आत्मा को तो कहीं मरण नहीं है परन्तु 'मरकर भी' अर्थात् देह की दरकार छोड़कर, देह से भिन्न आत्मा को जानने की दरकार कर । देह की जितनी दरकार की है, उसकी अपेक्षा अनन्तगुनी आत्मा की दरकार करके आत्मा को जान - ऐसी सच्ची धगश से प्रयत्न करेगा तो जरूर अन्दर तुझे देह से भिन्न आत्मा का विलास दिखेगा कि जिसे देखते ही देह के साथ एकत्वपने का तेरा मोह तुरन्त ही छूट जायेगा । अरे जीव ! तू विचार तो कर कि
मैं कौन हूँ आया कहाँ से ? और मेरा रूप क्या ?
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