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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
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अनुभव का.... उपदेश
माता की तरह वात्सल्य से हित की शिक्षा प्रदान करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे भाई! ऐसा अवसर प्राप्त करके तू देहादि से भिन्न तेरा चैतन्यतत्त्व देख । जगत् में यही करनेयोग्य है । अरे, तूने दुनिया को देखा, परन्तु देखनेवाले ऐसे तुझे स्वयं को तूने नहीं देखा । पर की प्रसिद्धि की, परन्तु अपनी प्रसिद्धि नहीं की । आहा ! चैतन्यतत्त्व ऐसे आनन्द से भरपूर है कि जिसके स्मरणमात्र से शान्ति मिलती है तो उसके सीधे अनुभव के आनन्द की तो क्या बात ! स्वयं अपने को जानने से परम आनन्द होता है । अरे, आत्मा के अनुभव का ऐसा सरस योग और उत्तम उपदेश प्राप्त करके अब उत्कृष्ट प्रयत्न द्वारा आत्मा को अनुभव में ले... एक बार आत्मा की खुमारी चढ़ाकर उद्यम कर ।
'समयसार कलश-23 के प्रवचन में से)
भाई ! तुझे आनन्दसहित आत्मा का अनुभव हो और तेरा मोह टूटे- ऐसी बात सन्त तुझे सुनाते हैं ।
हे भाई! यह चैतन्यतत्त्व अन्दर में देह से भिन्न, आनन्द से भरपूर कैसा है ? – उसका अनुभव करने के लिये तू कौतूहल कर... जगत् के बाह्य पदार्थों में तुझे आश्चर्य लगता है और उन्हें देखने का कौतूहल होता है परन्तु अन्दर में चैतन्यतत्त्व महाआश्चर्यकारी है, उसे देखने का कौतूहल कर । बाहर के पदार्थों को तो जानने में कोई आनन्द नहीं है; अन्दर चैतन्यतत्त्व ऐसा है कि जिसे जानने से आनन्द होता है। अहो ! ऐसा आनन्दकारी चैतन्यतत्त्व,
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