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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
है, क्योंकि सुशील जो भावलिङ्गी, उसके आश्रय से शील अर्थात् दर्शन - ज्ञान - चारित्र वृद्धि को पाते हैं । (भावार्थ - जिससे सत्यार्थ धर्म प्रवर्ते, वह तो एक भी श्रेष्ठ है परन्तु जिनसे सत्यार्थ धर्म नष्ट हो और विपरीत मार्ग प्रवर्ते, ऐसे लाखों-करोड़ों भी श्रेष्ठ नहीं है ।)
( भगवती आराधना, गाथा 359 )
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(10) गुणीजनों के आश्रय से गुण की पुष्टि
कोई ऐसा कहे कि सत्यार्थ संयमी तो हमारा आदर करते नहीं और पार्श्वस्थ (भ्रष्ट) मुनि बहुत आदर करते हैं, प्रीति करते हैं ! तो उन्हें कहते हैं कि भाई ! दुर्जन द्वारा की जानेवाली जो पूजा आदर, उसकी अपेक्षा संयमीजनों द्वारा किया जानेवाला अपमान भी श्रेष्ठ है, क्योंकि दुर्जन की संगति तो आत्मा के ज्ञान-दर्शन का नाश करती है और संयमियों की संगति, आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव को प्रगट करती है, उज्ज्वल करती है ।
( भगवती आराधना, गाथा 360 )
इसलिए श्रेष्ठ गुणधारक सन्तजनों का ही आश्रय करो - ऐसा उपदेश है ।
' आत्महितकार सत्संग की जय हो !' •
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आत्मा का स्वानुभव होने पर समकिती जीव, केवलज्ञानी जितना ही नि:शंक जानता है कि मैं आत्मा का आराधक हुआ हूँ और प्रभु के मार्ग में सम्मिलित हूँ। स्वानुभव हुआ और भवकटी हो गयी; अब हमारे इस भवभ्रमण में भटकना नहीं होगा। इस प्रकार अन्दर से आत्मा स्वयं ही स्वानुभव की झंकार करता हुआ जबाव देता है।
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