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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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होता है; आत्मज्ञ सन्त की उपासना करे और आत्मवैभव प्रगट न हो—ऐसा हो नहीं सकता। (7) गुण की अनुमोदना ___- गुणीजन का अनुमोदन करनेवाला आगे बढ़ता है; ईर्ष्या
करनेवाला अटक जाता है। ___- जिसने गुण की ईर्ष्या की, उसे दोष प्रिय लगे; इसलिए वह तो दोष में अटक जायेगा। ___- जिसने गुण की अनुमोदना की, उसे गुण प्रिय लगे; इसलिए
वह दोष से परान्मुख होकर गुण में आगे बढ़ता है। (8) गुणीषु प्रमोदं
सम्यक्त्वादि रत्नत्रयगुण के धारक ऐसे गुणीजनों के प्रति धर्मी को प्रमोद होता है; उस रत्नत्रय को तथा उनके आराधक गुणीजनों को देखकर उसे अन्तर में प्रेम-हर्ष-उल्लास और बहुमान जागृत होता है, उसे वात्सल्य उल्लसित होता है। जिसे गुणीजनों के प्रति प्रमोद नहीं आता तो समझना कि उस जीव को गुण की महिमा की खबर नहीं है, उसे अपने में गुण प्रगट नहीं हुए। जिसे अपने में गुण प्रगट हुए हों, उसे वैसे गुण दूसरे में देखने से प्रमोद आये बिना नहीं रहता। (9) गुणीजनों का संग
भगवती आराधना में कहते हैं कि चारित्ररहित तथा ज्ञानदर्शन से रहित-ऐसे भ्रष्ट मुनि लाखों-करोड़ों हों तो भी उन की अपेक्षा सुशील ऐसे उत्तम आचार का धारक एक ही हो, वह श्रेष्ठ
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