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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
गुण प्रमोद अतिशय रहे
= रहे अन्तर्मुख योग
गुणीजनों का गुणगान करके सत्संग की प्रेरणा देते हुए और आत्मगुण की पुष्टि करते हुए ये दस बोल, जिज्ञासुओं को रुचिकर होंगे।
(1) गुण की प्राप्ति
सम्यग्दृष्टि को जहाँ अपने अनन्त आत्मिक गुणों का स्वामित्व प्रगट हुआ, वहाँ विकार का स्वामित्व उसे कैसे रहे ? गुण की प्राप्ति जिसे हुई, वह दोष का स्वामी कैसे होगा? अहा.! अनन्त गुणनिधान आत्मा जिसने देखा, उसके आह्लाद की क्या बात ! ( 2 ) गुण की पुष्टि
जिसे धर्मात्मा-गुणीजनों के आश्रय का भाव है, उसके भाव में गुण की वृद्धि होती है और दोष की हानि होती है। धर्मात्मा के सम्यक्त्व-वैराग्य इत्यादि गुणों के प्रति परम प्रीति-बहुमान, वह मुमुक्षु को भी वैसे गुणों की प्राप्ति का और पुष्टि का कारण होता है। (3) गुण की प्रीति
जिसे गुण और दोष के बीच विवेक है, अर्थात् जिसे गुण रुचते हैं और दोष नहीं रुचते, वह जीव जहाँ गुण को देखे, वहाँ उत्साह से जाता है, अर्थात् गुणीजनों का सत्संग उसे रुचता है; दोष का पोषक ऐसा कुसंग उसे रुचता नहीं।
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