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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
ही आत्मा के दर्पण समान हैं। वे ही सच्चे आदर्शरूप हैं। उन अरिहन्त भगवान के स्वरूप को जानने से अपने स्वरूप का प्रतिबिम्ब ज्ञात होता है-इस प्रकार अरिहन्त भगवान जैसे अपने आत्मा को जानकर, उसे ध्याते-ध्याते जीव स्वयं भी मोहरूपी अरि को नाश कर अरिहन्त हो जाता है। यह अरिहन्त होने का उपाय! अनन्त तीर्थङ्करों ने यही उपाय किया है और दिव्यध्वनि में भी ऐसा ही उपदेश किया है।
उन अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो!
(प्रवचनसार, गाथा 80 पर पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचन बिन्दु)
अहा! आपने मेरा जीवन बचाया जिसे ऐसी आत्मार्थिता होती है, उसे अन्तर में आत्मा समझानेवाले के प्रति कितना प्रमोद, भक्ति, बहुमान, उल्लास और अर्पणता का भाव होता है ! वह आत्मा समझानेवाले के प्रति विनय से अर्पित हो जाता है... अहो नाथ! आपके लिए मैं क्या-क्या करूँ? इस पामर पर आपने अनन्त उपकार किया... आपके उपकार का बदला मैं किसी प्रकार चुका सकूँ - ऐसा नहीं है। ___जिस प्रकार किसी को फुफकारता हुआ भयङ्कर सर्प, फन ऊँचा करके डस ले, तब जहर चढ़ने से आकुल-व्याकुल होकर वह जीव तड़पता हो, वहाँ कोई सज्जन गारूड़ी मन्त्र द्वारा उसका जहर उतार दे तो वह जीव उस सत्पुरुष के प्रति कैसा उपकार व्यक्त करेगा? अहा! आपने मेरा जीवन बचाया, दुःख में तड़पते हुए मुझे आपने बचाया, इस प्रकार उपकार मानता है।
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