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________________ www.vitragvani.com 26] [सम्यग्दर्शन : भाग-4 -गुण-पर्याय को भलीभाँति जानता है, वह जीव वास्तव में अपने आत्मा को जानता है और उसका मिथ्यात्वरूप भ्रम अवश्य नाश को प्राप्त होता है और शुद्ध सम्यक्त्व प्रगट होता है-अनादि के अधर्म का नाश करके अपूर्व धर्म प्रगट करने का यह उपाय है। Is निश्चय से अरिहन्त भगवान का और इस आत्मा का स्वभाव समान है, उस स्वभाव को जानने से सम्यग्दर्शन होता है, वह अपूर्व धर्म है। सम्यग्दर्शन के बिना तीन काल में धर्म नहीं होता। ____IS जो जीव, अरिहन्त भगवान का स्वरूप पहचानता है, वह जीव, स्वभाव के आँगन में आया है; जो जीव, अरिहन्त भगवान को नहीं पहचानता और शरीर की क्रिया से या राग से धर्म मानता है, वह तो स्वभाव के आँगन में भी नहीं आया है। ___ अरिहन्त भगवान जैसे अपने आत्मा में द्रव्य-गुणपर्याय को जो जीव नहीं जानता, वही रागादि को और शरीरादि की क्रिया को अपना स्वरूप मानता है परन्तु जो जीव, अरिहन्त भगवान जैसे अपने आत्मा को पहचानता है, उसे भेदज्ञान हो जाता है, अर्थात् वह रागादि को अपना वास्तविक स्वरूप नहीं मानता तथा शरीरादि की क्रिया को अपनी नहीं मानता। रागरहित चैतन्यभाव से उसका अन्तर परिणमन हो जाता है। ___ तीन लोक के नाथ तीर्थङ्कर भगवान कहते हैं कि 'मेरा और तेरा आत्मा एक ही जाति का है, दोनों की एक ही जाति है। जैसा मेरा स्वभाव है, वैसा तेरा स्वभाव है। हमको केवलज्ञानदशा प्रगट हुई, वह बाहर से नहीं प्रगट हुई, किन्तु आत्मा में शक्ति है, Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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