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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
दशा आवे, उससे पूर्व तू आत्मा का हित कर ले; शरीर की जवानी के भरोसे रुक नहीं; उनसे अत्यन्त विरक्त होकर, भिन्न आत्मा को लक्ष्यगत करके, तू शीघ्रता से तेरे आत्मा का हित कर। दूसरे सब काम एक ओर छोड़कर, आत्मा के हित की शीघ्रता कर । शरीर कहीं हित का साधन नहीं परन्तु शरीर का लक्ष्य छोड़कर आत्मा के हित में तू अभी से ही सावधान हो—ऐसा उपदेश है। __ शरीर में रोग, बुढ़ापा होवे, उससे कहीं आत्मा का हित नहीं साधा जा सकता-ऐसा नहीं है परन्तु शरीर के प्रति ही जिसकी दृष्टि है, वह शरीर की शिथिलता होने पर धर्म को कहाँ से साधेगा? उसे परिणाम में आकुलता हुए बिना नहीं रहेगी। इसलिए कहते हैं कि हे जीव! पहले से ही देह से भिन्न तेरे आत्मा को लक्ष्यगत करके उसके चिन्तन का अभ्यास कर... इससे रोग या वृद्धावस्था के समय भी आत्महित में तुझे कोई बाधा नहीं आवे। पहले से ही भेदज्ञान का अभ्यास किया होगा तो सही अवसर पर वह काम आयेगा। बाकी यह शरीर तो घास की झोपड़ी जैसा है। कालरूपी अग्नि द्वारा भस्म हो जाने में इसे देर नहीं लगेगी; इसलिए काल तेरे जीवन को ग्रास बना ले, उससे पहले देह से भिन्न आत्मा को साध ले।
सुख का उल्लास अरे जीव! तू प्रमोद कर... विश्वास कर... कि आत्मा स्वयं, स्वयमेव सुखरूप है। तेरे सुख के लिये जगत के किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं है। स्वसन्मुख होने पर आत्मा स्वयं अपने अतीन्द्रिय आनन्द में लहर करता है और मोक्षसुख का सुधापान करता है।
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