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________________ सम्यग्दर्शन : भाग -4] www.vitragvani.com हे जीव ! तेरे आत्महित के लिये तू शीघ्रता से सावधान हो [ 23 यह शरीर - झोंपड़ा वृद्धता - रोगाग्नि से शीघ्र जल जायेगा और इन्द्रियाँ बलहीन होगी, शीघ्र निज हित को साध ले। एक देश से प्रवास करके दूसरे उत्तम देश में जाना हो तो शीघ्र प्रवास करके वहाँ शीघ्रता से कैसे पहुँचा जायेगा, उसका विचार करता है; तो इस देहरूपी परदेश को छोड़कर चैतन्यधामरूपी अपने उत्तम स्वदेश में तुझे जाना है तो उसमें शीघ्रता से कैसे पहुँचा जाये और आत्महित शीघ्रता से कैसे सधे ? इसके लिए हे जीव ! तू उद्यमी हो । अन्यत्र कहीं रुक नहीं । आहा! अतीन्द्रिय महान पदार्थ आत्मा, आनन्द से भरपूर, उसके अचिन्त्य चेतन निधान जिसने अपने में देखे हैं और ऐसे आत्मा को जो सदा चिन्तवन करता है, वह जगत की बाह्य जड़ ऋद्धि में मोहित कैसे होगा ? चैतन्य की आनन्द ऋद्धि के अनुभवसुख के समक्ष देवलोक के दिव्य भोग भी सर्वथा नि:स्सार हैं, उनमें आत्मा का सुख किंचित नहीं है । जिसे आत्मा का भान नहीं, ऐसे जड़बुद्धि लोग ही उस बाह्य वैभव में सुख मानकर अज्ञान से दुःखी होते हैं । सन्त कहते हैं-भाई ! तेरे अचिन्त्य निधान को तुझमें देख... शीघ्र देख । अरे ! इस मनुष्यजीवन का अल्प काल, उसमें तेरे आत्मा के सुख का तू अनुभव कर ले, यह क्षणभंगुर शरीर तो करोड़ों रोगों का धाम है; उसमें बुढ़ापा आवे, रोग हो, इन्द्रियाँ काम न करें ऐसी Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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