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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
अन्तर में अपूर्व प्रयत्न द्वारा अल्प काल में भी चैतन्यतत्त्व का अनुभव अवश्य करेगा ।
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जिसे अन्तर में चैतन्यतत्त्व जानने का कौतूहल जागृत हुआ है और उसके लिये शरीर का नाश होने तक की प्रतिकूलता को भी सहन करने के लिये तैयार हुआ, वह जीव अपने प्रयत्न द्वारा चैतन्य में ढले बिना नहीं रहेगा। शरीर को व्यय करके भी मुझे आत्मा को देखना है— ऐसा लक्ष्य में लिया, उसमें यह बात आ ही गयी है कि मैं शरीर से भिन्न हूँ, मुझे शरीरादि परवस्तु के बिना भी चलता है । शरीर छोड़कर भी चैतन्यतत्त्व का अनुभव करने के लिये जो तैयार हुआ, उसे शरीर में अपनेपने की बुद्धि तो सहज टल जाती है। शरीर जाने पर भी मुझे मेरे आत्मा का अनुभव रह जायेगा, ऐसा भिन्न तत्त्व का लक्ष्य उसे हो गया है।
हे जीव ! तेरा आत्मा चैतन्यस्वरूप है, वह संसाररहित है। ऐसे संसाररहित चैतन्यतत्त्व का अनुभव करने के लिये सम्पूर्ण संसार -पक्ष की दरकार छोड़कर, तू चैतन्य की ओर ढल; ऐसा करने से सम्पूर्ण संसार से भिन्न ऐसे तेरे परम चैतन्यतत्त्व का तुझे अनुभव होगा और तेरा परम कल्याण होगा ।
इस प्रकार आचार्यदेव ने आत्मकल्याण की अद्भुत प्रेरणा की है।
अहो! महा उपकारी सन्तों के अलावा आत्मकल्याण की ऐसी वात्सल्ययुक्त अद्भुत प्रेरणा कौन दे ! •
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