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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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महिमा के जोर से वह जीव, संयोग का और विकार का लक्ष्य छोड़कर उनसे भिन्न चैतन्यतत्त्व का अनुभव किये बिना नहीं रहेगा।
(8) अखण्ड चैतन्यसामर्थ्य को चूककर जिसने अल्पज्ञता में और विकार में एकत्वपने की बुद्धि है, उसे संयोग में भी एकत्वपने की बुद्धि पड़ी ही है; संयोग में एकपने की बुद्धि के बिना अल्पज्ञता में या विकार में एकपने की बुद्धि नहीं होती। यदि संयोग में से एकत्वबुद्धि वास्तव में छूटी हो तो संयोगरहित स्वभाव में एकत्वबुद्धि हुई होना चाहिए।
यहाँ आचार्यदेव अप्रतिबुद्ध शिष्य को समझाते हैं-हे जीव! अनादि से तेरे भिन्न चैतन्यतत्त्व को चूककर, बाह्य में शरीरादि परपदार्थों के साथ एकपने की मान्यता से तूने ही मोह खड़ा किया था, अब देहादिक से भिन्न चैतन्यतत्त्व की पहचान करते ही तेरा वह मोह मिट जायेगा; इसलिए सर्व प्रकार से तू उसका उद्यम कर।
(9) __ आचार्यदेव कहते हैं कि हे शिष्य! मरकर भी तू तत्त्व का कौतूहली हो। देखो! शिष्य में बहुत पात्रता और तैयारी है; इसलिए मरकर भी तत्त्व का कौतूहली होने की यह बात सुनने के लिये वह खड़ा है। अन्तर में समझकर आत्मा का अनुभव करने की उसे भावना है, धगश है, इसलिए जिज्ञासा से सुनता है। उसे स्वयं को भी अन्तर में इतना तो भासित हो गया है कि आचार्य भगवान मुझे 'मरकर भी आत्मा का अनुभव करने का' कहते हैं तो अवश्य मुझे मेरे चैतन्य का अनुभव करना, यही मेरा कर्तव्य है - ऐसा शिष्य
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