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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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ऐसे अनेक प्रकार से आचार्यदेव ने समझाया तथापि इतने से भी कोई जीव न समझे तो फिर से उसे प्रेरणा करते हुए आचार्यदेव 23 वें कलश में कहते हैं कि
रे भाई! तू किसी भी प्रकार से महा कष्ट से अथवा मरकर भी तत्त्व का कौतुहली हो, चैतन्य तत्त्व को देखने के लिये महा प्रयत्न कर। इन शरीरादि मूर्त द्रव्यों का दो घड़ी पड़ोसी होकर, उनसे भिन्न ऐसे तेरे आत्मा का अनुभव कर। तेरे आत्मा का चैतन्यविलास समस्त परद्रव्यों से भिन्न है, उसे देखते ही समस्त परद्रव्यों के साथ एकत्व का तेरा मोह छूट जायेगा।
(2 यहाँ मरकर भी चैतन्यमूर्ति आत्मा का अनुभव कर-ऐसा कहकर उस कार्य की परम महत्ता बतलायी है। हे भाई! तेरे सर्व प्रयत्न को तू इस ओर झुका। एक आत्म-अनुभव के अतिरिक्त जगत् के दूसरे सभी कार्य करने में मानो कि मेरी मृत्यु हुई हो-ऐसे उनसे उदासीन होकर, इस चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनुभव करने के लिये ही उद्यमी हो... सर्व प्रकार के उद्यम द्वारा अन्तर में झुककर तेरे आत्मा को पर से भिन्न देख।
(3) अरे जीव! चैतन्यतत्त्व के अनुभवरहित जीवन तुझे कैसे रुचता है? आत्मा के भानरहित जीवों का जीवन हमें तो मुर्दे जैसा लगता है। जहाँ चैतन्य की जागृति नहीं, अरे ! स्वयं कौन है ? इसका पता ही नहीं, उसे वह जीवन कैसे कहलाये? हे जीव! अब तो तू जागृत हो... जागृत होकर, हमने तुझे तेरा चैतन्यस्वरूप बतलाया
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