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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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एकत्वबुद्धि दूर होकर अब चैतन्यस्वरूप में सावधानी होती है; मेरा उत्साह निजस्वरूप की ओर ढलता है और मैं, अपना नित्य उपयोगस्वरूप से अतीन्द्रियज्ञानान्दस्वभाव का अनुभव करता हूँ। अब, रागादिभाव या परद्रव्य मेरे स्वरूप में एकमेकरूप से किञ्चित् भासित नहीं होते। अहो नाथ! आपने दिव्य मन्त्रों द्वारा हमारी मोहमूर्छा दूर करके हमें सजीवन किया...... ___- इस प्रकार, समझनेवाला शिष्य अत्यन्त विनय और बहुमानपूर्वक श्रीगुरु के उपकार की प्रसिद्धि करता है।
(11) आचार्यदेव ने अनेकानेक प्रकार से जीव-अजीव का भिन्नत्व बतलाया और अजीव से भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा की समझ प्रदानकर प्रसन्नतापूर्वक सावधानी से उसका अनुभव करने को कहा; कोई जीव इतने से भी जागृत न हो तो उसे अति उग्र प्रेरणा करके आचार्यदेव 23 वें कलश में कहते हैं कि - अरे भाई! तू मरकर भी चैतन्यमूर्ति आत्मा का अनुभव कर। आचार्यदेव कोमल सम्बोधन से कहते हैं कि भाई! शरीरादिक मूर्तद्रव्यों से भिन्न ऐसे अपने चैतन्यस्वरूप आत्मा का तू किसी भी प्रकार महाप्रयत्न करके अनुभव कर, जिससे पर के साथ एकत्व का तेरा मोह छूट जाए।
- आत्मा का अनुभव करने की प्रेरणावाला वह लेख अब आप आगामी पृष्ठ में पढ़ेंगे। आत्मकल्याण के लिये लालायित जिज्ञासुओं को वह लेख पढ़ने से ऐसा लगेगा कि अहो! महा उपकारी सन्तों के अतिरिक्त आत्मकल्याण की ऐसी वात्सल्ययुक्त अद्भुत प्रेरणा कौन दे! .
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