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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 4
(9)
अहो! मैं तो एक चैतन्यमय जीवतत्त्व हूँ; मैं अजीव में कैसे व्याप्त हो सकता हूँ? मैं तो अपने उपयोगस्वरूप में ही हूँ और पर तो पर में ही है। मैं कभी अपने उपयोगस्वरूप को छोड़कर पररूप हुआ ही नहीं हूँ - ऐसा श्रीगुरु ने तुझे समझाया, इसलिए 'हे भव्य ! मैं स्वयं अपने उपयोगस्वभाव में ही हूँ' - ऐसा जानकर, प्रसन्न होकर सावधान हो और अन्तर्मुख होकर अपने चैतन्यस्वरूप का अनुभव कर ! उसके अतीन्द्रिय आनन्द का उपभोग कर ! हमने तो तुझे तेरा चैतन्यस्वरूप देहादि सर्व से पृथक् और स्वयं तुझ से ही परिपूर्ण सदा उपयोगमय बतलाया है, उसे जानकर तू प्रसन्न हो, सावधान हो और उसका अनुभव कर, उसमें तुझे आत्मा के अपूर्व आनन्द का स्वसंवेदन होगा ।
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इस प्रकार आचार्यदेव ने चैतन्यस्वरूप में प्रसन्नता, सावधानी और अनुभव करने को कहा।
श्रीगुरु के ऐसे कल्याणकारी उपदेश को झेलनेवाला शिष्य, विनय और बहुमानपूर्वक कहता है कि हे प्रभो ! अनादि काल से मैं अपने चैतन्यतत्त्व को भूलकर विकार और पर में अपनत्व मानकर, कर्तृत्वबुद्धिरूप मूर्खता से आकुल-व्याकुल हो रहा था, अब आपने ही परम करुणा करके बारम्बार मुझे प्रतिबोध दिया और पर से अत्यन्त भिन्न चैतन्यस्वरूप से परिपूर्ण मेरा स्वद्रव्य समझाकर मुझे निहाल किया । अहो ! ऐसा परम महिमावन्त अपना स्वद्रव्य समझने से मुझे प्रसन्नता होती है । पर में एकाकार हुई
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