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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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प्रत्यक्ष जाननेवाले हैं। उन सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान से तो ऐसा प्रसिद्ध किया गया है कि जीवद्रव्य सदैव उपयोगमय है और शरीरादिक तो अचेतन हैं। यदि तू ऐसा कहता है कि 'शरीरादि पुद्गलद्रव्य मेरे हैं' - तो हे भाई! सर्वज्ञ भगवान ने सदैव चेतनरूप देखा है-ऐसा जीवद्रव्य, अचेतन कहाँ से गया कि जिससे तू पुद्गलद्रव्य को अपना मानता है ? ___ जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकार में एकता नहीं है, किन्तु अत्यन्त भिन्नता है; उसी प्रकार चैतन्यस्वरूप आत्मा और जड़ में एकता नहीं है, किन्तु अत्यन्त भिन्नत्व है। जिस प्रकार जड़ के साथ आत्मा को एकता नहीं है, उसी प्रकार रागादिक के साथ भी चैतन्यस्वरूप की एकता नहीं है; चैतन्यस्वरूप तो राग से भी भिन्न है। चैतन्य और राग की एकमेकता नहीं हुई है। इसलिए हे शिष्य! तू अपने आत्मा को शरीर और राग से भिन्न चैतन्यस्वरूप जान! चैतन्यस्वरूप आत्मा एक ही तेरा स्वद्रव्य है - ऐसा तू अनुभव कर!!
जिनका ज्ञान सर्व प्रकार से शुद्ध है - ऐसे सर्वज्ञ भगवान ने अपने दिव्यज्ञान में ऐसा देखा है कि आत्मा सदैव उपयोगस्वरूप है। जो जीव इससे विपरीत मान्यता हो, उसने वास्तव में सर्वज्ञ भगवान को नहीं पहिचाना है। यदि सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान का निर्णय करे तो आत्मा सदैव उपयोगस्वरूप है - ऐसा निर्णय भी होता ही है।
सर्वज्ञ भगवान के आत्मा में परिपूर्ण ज्ञान है और राग किंचित् भी नहीं है, इसलिए उसका निर्णय करने से ज्ञान और राग की भिन्नता का निर्णय होता हो जाता है। इस प्रकार हे भाई! तेरे
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