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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 4
भावरूप नहीं हो गये हैं । ज्ञान को और राग को ज्ञेय-ज्ञायकपना है और एकक्षेत्रावगाहपना है, किन्तु उनके एकत्व नहीं है; ज्ञान और राग का स्वभाव भिन्न-भिन्न है । ऐसा होने पर भी जो जीव, ज्ञान और राग की एकमेकरूप मान रहा है, उससे आचार्यदेव कहते हैं कि अरे दुरात्मा! हाथी इत्यादि पशु जैसे स्वभाव को तू छोड़छोड़! जिस प्रकार हाथी, लड्डू और घास के स्वाद का विवेक किये बिना उन दोनों को एकमेक करके खाता है, उसी प्रकार तू भी जड़ और चेतन का विवेक किये बिना दोनों का एकरूप अनुभव करता है - उसे अब तू छोड़ और परम विवेक से भेदज्ञान करके अपने चैतन्यस्वरूप आत्मा को जड़ से और विकार से अत्यन्त भिन्न जान !
यहाँ 'हे दुरात्मा!' - ऐसा कहा, उसका अर्थ यह है कि अरे भाई ! चैतन्यस्वरूप से च्युत होकर जड़स्वरूप को अपना माननेरूप जो मिथ्यात्वभाव है, वह दुरात्मपना है; उसे तू छोड़, और 'मैं सदैव चैतन्यस्वरूप उपयोगमय आत्मा हूँ' - ऐसा समझकर तू पवित्रात्मा बन। इस प्रकार यहाँ दुरात्मपना छोड़कर पवित्रात्मपना प्रगट करने की प्रेरणा की है।
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श्री सर्वज्ञ भगवान की साक्षी देकर आचार्यदेव कहते हैं कि
- अरे जीव ! सर्वज्ञ भगवान ने तो जीव को नित्य उपयोगस्वभावरूप
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देखा है। सुननेवाला शिष्य, व्यवहार से तो सर्वज्ञ भगवान को माननेवाला है; इसलिए आचार्यदेव उसे सर्वज्ञ की साक्षी देकर समझाते हैं कि हे भाई! अपने सर्वज्ञ भगवान, समस्त विश्व को
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