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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
विनयपूर्वक यह बात सुनने के लिए खड़ा है, इसलिए वह आत्मा को समझने की पात्रतावाला है, इसी कारण आचार्यदेव जिस प्रकार समझायेंगे, उसी प्रकार वह समझ जाएगा ।
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(3)
भाई रे! अब तू सावधान हो और अपने चैतन्यस्वरूप को सम्हाल! अभी तक तो अज्ञान के कारण जड़-चेतन की एकता मानकर तूने भव-भ्रमण किया, किन्तु तुझे जड़ से भिन्न तेरा शुद्ध चैतन्यस्वरूप बतलाते हैं, उसे जानकर तू सावधान हो । सावधान होकर ऐसा जान कि अहो! मैं तो चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ । पूर्व काल में भी मैं चैतन्यस्वरूप था। जड़ शरीर मुझसे सदैव अत्यन्त भिन्न है; मेरा चैतन्यस्वरूप, जड़ से भिन्न रहा है - ऐसे अपने चैतन्यस्वरूप को जानकर तू प्रसन्न हो... आनन्द में आ! अपने चैतन्यस्वरूप को पहिचानते ही तुझे अन्तर में अपूर्व प्रसन्नता और आनन्द होगा। 'मैं चैतन्य परमेश्वर हूँ, जैसे परमात्मा हैं, वैसा ही मेरा स्वरूप है; मेरा स्वरूप कुछ बिगड़ा नहीं है' - ऐसा समझकर, अपना चित्त उज्ज्वल कर... हृदय को उज्ज्वल कर... प्रसन्न हो और आह्लाद कर कि अहो ! ऐसा मेरा आनन्दघन चैतन्यभावस्वरूप !
भाई ! ऐसा अनुभव करने से तेरा अनादि का मिथ्यात्व दूर हो जाएगा और भव-भ्रमण का अन्त आ जाएगा ।
(4)
आत्मा चैतन्यस्वरूप है और रागादिभाव तो बन्धस्वरूप हैं । हे भाई ! तेरे आत्मा को बन्धन की उपाधि की अति निकटता होने पर भी, बन्ध के साथ एकरूपता नहीं है; रागादिभाव तेरे चैतन्यस्वरूप
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