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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 4
आचार्यदेव अप्रतिबुद्ध जीव को आत्मा का स्वरूप बतलाते हैं
हे भाई! जड़ से भिन्न तेरा चैतन्यतत्त्व हमने तुझे बतलाया, | वह जानकर अब तू प्रसन्न हो... सावधान हो और चेतनस्वरूप आत्मा को ही तेरे स्वद्रव्य के रूप में अनुभव कर ।
(1)
जिसे देह से भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा की खबर नहीं है और अज्ञानभाव से ‘शरीर ही मैं हूँ, शरीर के कार्य मुझसे होते हैं' - ऐसा जो मान रहा है, उस मूढ़ जीव को आचार्यदेव करुणापूर्वक समझाते हैं कि अरे मूढ़ ! तेरा आत्मा सदैव चैतन्यरूप है; वह चैतन्यस्वरूप आत्मा, जड़ कहाँ से हो गया, जो तू जड़ को अपना मानता है ? तेरा आत्मा तो सदैव चैतन्यरूप ही है, वह कभी जड़रूप नहीं हुआ है; चैतन्यस्वरूप आत्मा का कभी जड़ के साथ एकत्व नहीं हुआ है, सदैव भिन्नत्व ही है; इसलिए हे भाई! अब तू जड़ के साथ एकत्व की मान्यता छोड़ और अपने चैतन्यस्वरूप आत्मा को देख । तेरे आत्मा का विलास जड़ से भिन्न चैतन्यस्वरूप है। ऐसे चैतन्यविलास से एक आत्मा को ही तू स्वतत्त्वरूप से देख।
(2)
यह बात किसे समझाते हैं ? - जो अनादि से धर्म का बिल्कुल अनभिज्ञ है, जिसे शरीर से भिन्न आत्मतत्त्व की खबर नहीं है ऐसे अज्ञानी को यह बात समझाते हैं । वह जीव, अज्ञानी होने पर भी आत्मा का स्वरूप समझने का कामी है - जिज्ञासु है और
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