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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
साधन बनाकर जो ज्ञान होता है, वही आत्मा को जाननेवाला है। पुण्य-पाप भी उसका स्वरूप नहीं है। अतीन्द्रियज्ञान ऐसा नहीं है कि पुण्य-पाप की रचना करे। राग की रचना, आत्मा का कार्य नहीं है; आत्मा का वास्तविक कार्य, अर्थात् परमार्थ लक्षण को अतीन्द्रिय ज्ञानचेतना है। उस चेतनास्वरूप से अनुभव में लेते ही आत्मा सच्चे स्वरूप से अनुभव में आता है - ऐसे आत्मा को अनुभव में लेने पर ही जीव को धर्म होता है।
आत्मा स्वयं उपयोगस्वरूप है, उसे पर का अवलम्बन नहीं है। वह बाहर से उपयोग को नहीं लाता है। अन्तर की एकाग्रता द्वारा जो उपयोग काम करता है, वही आत्मा का स्वलक्षण है। ऐसे अतीन्द्रियज्ञान का स्वामी भगवान अशरीरी आत्मा, अपने को भूलकर शरीर धारण कर-करके भव में भटके - यह तो शर्मजनक है, यह कलंक आत्मा को शोभा नहीं देता है। बापू! तू अशरीरी चैतन्य भगवान... तेरा चैतन्य उपयोग शरीर में से, इन्द्रियों में से अथवा राग में से नहीं आता। जिसने ऐसे आत्मा के संस्कार अन्दर में डाले होंगे, उसे परभव में भी वे संस्कार साथ रहेंगे। इसलिए बारम्बार अभ्यास करके ऐसे आत्मस्वभाव के संस्कार अन्दर में दृढ़ करने योग्य हैं। बाहर की पढ़ाई से वह ज्ञान नहीं आता है, वह तो अन्तर के स्वभाव से ही खिलता है। अन्तर में स्वभाव के घोलन के संस्कार बारम्बार अत्यन्त दृढ़ करने पर वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होता है, वही धर्म की सच्ची कमाई है और यह ऐसी धर्म की कमाई का अवसर है।
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