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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 4
अपनी अधिकता मानकर सन्तुष्ट हो जाता है, तब तक आत्मा का सच्चा मार्ग जीव को हाथ में नहीं आता। अन्तर में परमस्वभाव से भरपूर भगवान आत्मा के सन्मुख होने से ही परमतत्त्व की प्राप्ति होती है और मोक्षमार्ग हाथ में आता है।
* सन्त कहते हैं : तू भगवान है *
भाई ! तूने आत्मा के सन्मुख देखे बिना, अर्थात् स्वसंवेदन प्रत्यक्ष किये बिना, अज्ञानदशा के उत्कृष्ट शुभभाव भी किये हैं; ग्यारह अंग का ज्ञान भी किया है परन्तु उससे आत्मा के कल्याण का मार्ग किञ्चित्मात्र भी तेरे हाथ में नहीं आया है। इसलिए ज्ञान को परविषयों से भिन्न करके स्वविषय में जोड़! इन्द्रियज्ञान के व्यापार में ऐसी सामर्थ्य नहीं है कि आत्मा को स्व -विषय बनाकर जान ले । तू परमात्मा, तुझे स्वयं अपना ज्ञान करने के लिए इन्द्रियों के या राग के समक्ष भीख माँगनी पड़े- ऐसा भिखारी तू नहीं है । आहा...हा... ! सन्त कहते हैं कि तू भिखारी नहीं, अपितु भगवान है।
अज्ञानियों के अनुमान में आ जाए - ऐसा यह आत्मा नहीं है । अकेले परज्ञेय को अवलम्बन करनेवाला ज्ञान, वह अज्ञान है; वह ज्ञान नहीं है। ज्ञान का भण्डार आत्मा स्वयं अपने ज्ञानस्वभाव का अवलम्बन करके जिस ज्ञानरूप परिणमित होता है, वही ज्ञान, मोक्ष को साधनेवाला है।
इस शरीर को घट कहा जाता है, यह घट की तरह क्षणिक / नाशवान है। यह घट और घट को जाननेवाला दोनों एक नहीं किन्तु पृथक् हैं । शरीर के अंगभूत इन्द्रियाँ, वह कहीं आत्मा के ज्ञान की उत्पत्ति का साधन नहीं है । आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावी है, उसे
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