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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
चैतन्यस्वरूप आत्मा को राग से भी भिन्नता है, तब फिर शरीरादि मूर्तद्रव्यों के साथ तो एकता कहाँ से हो सकती है ? इसलिए उस एकत्व का भ्रम छोड़कर 'मैं चैतन्य ही हूँ' - ऐसा तू अनुभव कर।
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जिस प्रकार पिता दो हिस्से करके पुत्र को समझाता है कि देख भाई ! यह तेरा हिस्सा; अपना भाग लेकर तू सन्तुष्ट हो; उसी प्रकार यहाँ जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य - ऐसे दो हिस्से करके आचार्यदेव समझाते हैं कि देख भाई! चैतन्यद्रव्य नित्य उपयोगस्वभावरूप है, वह तेरा हिस्सा है, और 'नित्य उपयोगस्वभाव' के अतिरिक्त अन्य पुद्गलद्रव्य का हिस्सा है। हे जीव! अब तू अपना हिस्सा लेकर सन्तुष्ट हो । उपयोगस्वभाव / ज्ञायकभाव के अतिरिक्त अन्य सब में से आत्मबुद्धि छोड़कर इस एक ज्ञायकभाव का ही अपने स्वभावरूप अनुभव कर.. उसी में एकाग्र हो।
(7) जिस प्रकार नमक में से पानी हो जाता है और पानी से नमक हो जाता है; उसी प्रकार जीव कभी पुद्गलरूप नहीं होता और पुद्गल कभी जीवरूप नहीं होता। इसलिए नमक के पानी की भाँति जीव-अजीव की एकता नहीं है, किन्तु प्रकाश और अन्धकार की भाँति जीव-अजीव की भिन्नता है। जैसे प्रकाश और अन्धकार को कभी एकत्व नहीं है; उसी प्रकार चेतन और जड़ को कभी एकत्व नहीं है। जीव तो चैतन्यप्रकाशमय है और पुद्गल तो जड़ - अन्ध है; उनके अत्यन्त भिन्नता है। __यहाँ 'नमक का पानी'-ऐसा दृष्टान्त देकर आचार्यदेव कहते हैं कि हे जीव! जिस प्रकार नमक गलकर पानीरूप हो जाता है;
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