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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
भिन्नता को जानकर, तू अपने आत्मा को भव-भ्रमण से बचा.... शीघ्रता से स्वद्रव्य का रक्षक हो और परद्रव्य का रक्षकपना छोड़ दे।
हे जीव! स्वद्रव्य को पर से अत्यन्त भिन्न जानकर शीघ्रता से तू स्वद्रव्य का रक्षक हो... व्यापक हो... धारक हो... रमक हो... ग्राहक हो... परभाव से सर्व प्रकार से विरक्त हो।
बाहर के परभाव की रमणता छोड़... और स्वद्रव्य में रमणता कर। 'राणा! क्रीड़ा छोड़... सेना आयी किनारे...' यह तेरे जीवन का किनारा नजदीक आया है; इसलिए तू राग की रमणता शीघ्रता से छोड़ दे और रमने योग्य चैतन्यधाम में शीघ्र रमणता कर।
* वीतरागरस का प्रवाह * अहो! यह तो वीतरागमार्ग का प्रवाह है। इसमें अकेला वीतरागरस भरा है। भगवान के पास से यह वीतरागरस का प्रवाह आया है। इस वीतरागरस के समक्ष धर्मी को इन्द्र का इन्द्रासन भी नीरस लगता है। अपूर्व आनन्दरस की धारा आत्मा में से बहती है, उसका लक्ष्य तो करो! आत्मा के स्वभाव की ऐसी बात सुनकर उसका बहुमान करनेवाले भी महाभाग्यशाली हैं और जिन्होंने ऐसा आत्मा लक्ष्य में लिया, वे समस्त परभावों से विरक्त होकर परम अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करते हैं। जिसे इन्द्रिय के अवलम्बनवाला ज्ञान भी नहीं जान सकता - ऐसे भगवान आत्मा का ग्राहक होकर परभाव का ग्रहण छोड़! जहाँ इन्द्रियज्ञान भी मेरा स्वरूप नहीं है, वहाँ अन्य रागादि परभावों की अथवा इन्द्रियों की क्या बात? इस प्रकार परभावों से भिन्न होकर, आत्मा को ग्रहण कर... तो तेरी पर्याय में परम आनन्द से भरपूर वीतरागरस का प्रवाह बहेगा।
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