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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-4] [159 तब अनन्तमती कहती है-पिताजी! इस संसार की लीला मैंने देख ली, संसार में भोग-लालसा के अतिरिक्त दूसरा क्या है? इससे तो अब बस होओ। पिताजी! इस संसार सम्बन्धी किसी भोग की आकाँक्षा मुझे नहीं है। मैं तो अब दीक्षा लेकर आर्यिका होऊँगी और इन धर्मात्मा आर्यिकाओं के साथ रहकर अपने आत्मिकसुख को साधूंगी। पिता ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु जिसके रोम-रोम में वैराग्य छा गया हो, वह इस असार-संसार में क्या रहे? सांसारिक सुखों को स्वप्न में भी न चाहनेवाली अनन्तमती नि:कांक्षित भावना के दृढ़ संस्कार के बल से मोहबन्धन को तोड़कर वीतरागधर्म की साधना में तत्पर हुयी। उसने पद्मश्री आर्जिका के समीप दीक्षा अङ्गीकार कर ली और धर्मध्यानपूर्वक समाधिमरण करके स्त्रीपर्याय को छोड़कर बारहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुई। खेल-खेल में भी लिए हुए शीतव्रत का जिसने दृढ़तापूर्वक पालन किया और स्वप्न में भी सांसारिक सुखों की इच्छा नहीं की, सम्यक्त्व अथवा शील के प्रभाव से कोई ऋद्धि आदि मुझे प्राप्त हो -ऐसी आकांक्षा भी जिसने नहीं की, वह अनन्तमती देवलोक में गयी। अहा! देवलोक के आश्चर्यकारी वैभव की क्या बात ! किन्तु परम निष्कांक्षिता के कारण उससे भी उदास रहकर वह अनन्तमती अपने आत्महित को साध रही है। धन्य है उसकी नि:काँक्षिता को! [– यह कथा, सांसारिक सुख की वाँछा तोड़कर, आत्मिक -सुख की साधन में तत्पर होन के लिए हमें प्रेरणा / शिक्षा देती है।]. Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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