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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
सुन्दर रंगोली ( चौक) देखकर प्रियदत्त सेठ की आँखों में से आँसुओं की धार वह निकली; अपनी प्रिय पुत्री की याद करके उन्होंने कहा कि मेरी पुत्री अनन्तमती भी ऐसी ही रंगोली पूरती थी; अत: जिसने यह रंगोली पूरी हो, उसके पास मुझे ले जाओ। वह रंगोली पूरनेवाला कोई दूसरा नहीं था, अपितु अनन्तमती स्वयं ही थी; अपने मामा के यहाँ जब वह भोजन करने आयी थी, तभी उसने रंगोली पूरी थी, फिर बाद में वह आर्यिका संघ में चली गयी थी । तुरन्त ही सभी लोग संघ में पहुँचे। अपनी पुत्री को देखकर और उस पर बीती हुई कथा सुनकर सेठ गद्गद हो गये, और कहा 'बेटी ! तूने बहुत कष्ट भोगे, अब हमारे साथ घर चल, तेरे विवाह की तैयारी करेंगे।'
विवाह का नाम सुनते ही अनन्तमती चौंक उठी और बोलीपिताजी ! आप यह क्या कहते हैं ? मैंने तो ब्रह्मचर्यव्रत लिया है और आप भी यह बात जानते हैं । आपने ही मुझे यह व्रत दिलाया था ।
पिताजी ने कहा- बेटी, यह तो तेरे बचपन की हँसी की बात थी। फिर भी यदि तुम उस प्रतिज्ञा को सत्य ही मानती हो तो भी वह तो मात्र आठ दिन की प्रतिज्ञा थी; इसलिए अब तुम विवाह करो ।
अनन्तमती दृढ़ता से कहा - पिताजी आप भले ही आठ दिन की प्रतिज्ञा समझे हों, परन्तु मैंने तो मन से आजीवन ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा धारण की थी । मैं अपनी प्रतिज्ञा प्राणान्त होने पर भी नहीं छोडूंगी। अतः आप विवाह का नाम न लेवें।
अन्त मे पिताजी ने कहा-अच्छा बेटी, जैसी तेरी इच्छा, परन्तु अभी तू मेरे साथ घर चल और वही धर्मध्यान करना ।
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