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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 4
२. नि:कांक्षित-अङ्ग में प्रसिद्ध अनन्तमती की कथा
अनन्तमती ! चम्पापुर के प्रियदत्त सेठ उसके पिता, और अङ्गवती उसकी माता, वे दोनों जैनधर्म के परम भक्त और वैरागी धर्मात्मा थे, उनके उत्तम संस्कार अनन्तमती को भी मिले थे ।
अनन्तमती अभी तो सात-आठ वर्ष की बालिका थी और गुड़ियों का खेल खेलती थी; इतने में ही एक बार अष्टाह्निका के पर्व में धर्मकीर्ति मुनिराज पधारे और सम्यग्दर्शन के आठ अङ्गों का उपदेश दिया; उसमें नि:कांक्ष गुण का उपदेश देते हुए कहा कि - हे जीव ! संसार के सुख की वाँछा छोड़कर आत्मा के धर्म की आराधना करो। धर्म के फल में जो संसार-सुख की इच्छा करता है, वह मूर्ख है। सम्यक्त्व या व्रत के बदले में मुझे देवों की या राजाओं की विभूति मिले- ऐसी जो वाँछा करता है, वह तो संसार- सुख के बदले में सम्यक्त्वादि धर्म को बेच देता है, छाछ के बदले में रत्न-चिन्तामणि बेचनेवाले मूर्ख के समान है । अहा, अपने में ही चैतन्य - चिन्तामणि जिसने देखा, वह बाह्य विषयों की वाँछा क्यों करे?
अनन्तमती के माता-पिता भी मुनिराज का उपदेश सुनने के लिये आए थे और अनन्तमती को भी साथ लाए थे । उपदेश के बाद उन्होंने आठ दिन का ब्रह्मचर्यव्रत लिया और हँसी में अनन्तमती से कहा कि तू भी यह व्रत ले ले । निर्दोष अनन्तमती ने कहाअच्छा, मैं भी यह व्रत अङ्गीकार करती हूँ ।
इस प्रसङ्ग को अनेक वर्ष व्यतीत हो गये । अनन्तमती अब
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