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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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युवा हुयी, उसका रूप सोलहकलाओं सहित खिल उठा, रूप के साथ -साथ धर्म के संस्कार भी खिलते गये।
एकबार सखियों के साथ वह उद्यान में घूमने-फिरने गयी थी और एक झूले पर झूल रही थी; इतने में उधर से एक विद्याधर राजा निकला और अनन्तमती का अद्भुत रूप देखकर मोहित हो गया,
और विमान में उसे उड़ा ले गया, परन्तु इतने में ही उसकी रानी आ पहुँची; इसलिए भयभीत होकर उस विद्याधर से अनन्तमती को भयङ्कर वन में छोड़ दिया। इस प्रकार दैवयोग से एक दुष्ट राजा के पञ्जे से उसकी रक्षा हुयी।
अब घोर वन में पड़ी हुयी अनन्तमती, पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करने लगी और भयभीत होकर रुदनपूर्वक कहने लगी कि अरे! इस जङ्गल में मैं कहा जाऊँ? क्या करूँ? यहाँ कोई मनुष्य तो दिखायी नहीं देता।
इतने में उस जङ्गल का राजा भील शिकार करने निकला, उसने अनन्तमती को देखा... अरे! यह तो कोई वनदेवी है या कौन है? ऐसी अद्भुत सुन्दरी दैवयोग से मुझे मिली है। इस प्रकार वह दुष्ट भील भी उस पर मोहित हो गया। वह उसे अपने घर ले गया और कहा - हे देवी! मैं तुम पर मुग्ध हुआ हूँ और तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहता हूँ .... तुम मेरी इच्छा पूर्ण करो।
निर्दोष अनन्तमती तो उस पापी की बात सुनते ही सुबक - सुबककर रोने लगी। अरे ! मैं शीलव्रत की धारक और मेरे ऊपर यह क्या हो रहा है ? अवश्य ही पूर्वजन्म में किसी गुणीजन के शील पर मैंने दोषारोपण या उनका अनादर किया होगा; उसी दुष्टकर्म के कारण आज जहाँ जाती हूँ, वहीं मुझ पर ऐसी विपत्ति
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