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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग -4] [ 151 अंजन चोर को आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुयी, तब उसे चोरी का धन्धा करने के लिए उस विद्या का उपयोग करने की दुर्बुद्धि उत्पन्न नहीं हुई, किन्तु जिनबिम्ब के दर्शनादि धर्मकार्य में ही उसका उपयोग करने की सद्बुद्धि पैदा हुयी । यही उसके परिणामों का परिवर्तन सूचित करता है और ऐसी धर्मरुचि के बल से ही आगे चलकर वह सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करता है । ] विद्या सिद्ध करने पर अंजन ने विचार किया कि अहा ! जिस जैनधर्म के एक छोटे से मन्त्र से मुझ जैसे चोर को भी ऐसी विद्या सिद्ध हुयी, तो वह जैनधर्म कितना महान होगा ! उसका स्वरूप कितना पवित्र होगा। चलो, जिन सेठ के प्रताप से मुझ यह विद्या मिली, उन्हीं सेठ के पास जाकर मैं उस धर्म का स्वरूप समझँ । और उन्हीं के पास से ऐसा मन्त्र सीखूं कि जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो — ऐसा विचारकर विद्या के बल से वह मेरुपर्वत पर पहुँचा । वहाँ रत्नों की अद्भुत अरहन्त भगवन्तों की वीतरागता देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। जिनदत्त सेठ उस समय वहाँ मुनिवरों का उपदेश सुन रहे थे। अंजन ने उनका बहुत उपकार माना और मुनिराज का उपदेश सुनकर शुद्धात्मा का स्वरूप समझकर उसकी निःशङ्क श्रद्धापूर्वक निर्विकल्प अनुभव करके सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, इतना ही नहीं, पूर्व पापों का पश्चाताप करके उसने मुनिराज के पास दीक्षा ले ली; साधु होकर आत्मध्यान करते उसे केवलज्ञान प्रगट हो गया और अन्त में कैलाशगिरि से मोक्ष प्राप्त करके सिद्ध हो गए। 'अंजन' के स्थान पर वह 'निरंजन' बन गए। उन्हें नमस्कार हो । (यह कथा हमें जैनधर्म की निःशङ्क श्रद्धा करके उसकी आराधना का पाठ पढ़ाती है ।) • Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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