SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 142] [ सम्यग्दर्शन : भाग-4 धर्मात्मा को जगत में अपना रत्नत्रयस्वरूप आत्मा ही परमप्रिय है; संसार सम्बन्धी दूसरा कोई प्रिय नहीं । सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय को धर्मी जीव अपने आत्मा के साथ अभेदरूप से देखता है; इसलिए उसे मोक्षमार्ग का अत्यन्त प्रेम है और निमित्तरूप से मोक्षमार्ग के साधक सन्तों के प्रति उसे परम आदर होता है तथा उसे मोक्षमार्ग दर्शानेवाले सर्वज्ञ भगवान और वीतरागी शास्त्रों के प्रति भी प्रेम आता है। कुदेव-कुगुरु-कुधर्म के प्रति या मिथ्यात्वादि परभावों के प्रति धर्मी को स्वप्न में भी प्रेम नहीं आता। इस प्रकार अपने आत्मा के साथ अभेदरूप से ही मार्ग को (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मार्ग को ) देखता होने से धर्मात्मा को मार्ग की अप्राप्ति के कारण होनेवाला बन्धन नहीं होता परन्तु मार्ग की उपासना के द्वारा निर्जरा ही होती है । मार्ग को तो अपने आत्मा के साथ अभेदरूप से ही देखता है; इसलिए उसे मार्ग के प्रति परम वात्सल्य है । देखो, सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय के प्रति जिसे अभेदबुद्धि होती है, उसे ही मोक्षमार्ग के प्रति वास्तविक वात्सल्य है; जिसे रत्नत्रय के प्रति जरा भी भेदबुद्धि है, अर्थात् रत्नत्रय को अभेद आत्मा के आश्रय से ही न मानकर, राग के अथवा पर के आश्रय से रत्नत्रय की प्राप्ति होना जो मानता है, उसे वास्तव में रत्नत्रय के प्रति वात्सल्य नहीं है परन्तु उसे तो राग के प्रति और पर के प्रति वात्सल्य है। धर्मी - सम्यग्दृष्टि तो अपने से रत्नत्रय को अभेदबुद्धि से देखता होने से, अर्थात् पर के आश्रय से किञ्चित् भी नहीं देखता होने से, उसे रत्नत्रय के प्रति परम वात्सल्य होता है। ऐसा सम्यग्दृष्टि का वात्सल्य अङ्ग है । • Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy