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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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विकल्प के प्रति उसे प्रेम नहीं होता। वह विभावों को तो अपने से भिन्न जानता है। रत्नत्रयधर्म को अपने घर की चीज़ जानकर उसमें एकत्वबुद्धिरूप परम प्रेम-यही वीतरागी वात्सल्य है।
देखो, यह धर्मी का वात्सल्य अङ्ग! धर्मी को अपने आत्मा में ही रति-प्रीति है। गाथा २०६ में कहा था कि
इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे। इससे हि बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे॥
हे भव्य! तू इस ज्ञानस्वरूप आत्मा में ही नित्य प्रीति कर, इसमें ही नित्य सन्तुष्ट हो और इससे ही तृप्त हो; -तुझे उत्तम सुख का अनुभव होगा।
अहो! जिसे आत्मा का हित करना हो-वास्तविक सुख चाहिए हो, उसे आत्मा का परम प्रेम करनेयोग्य है। श्रीमद् राजचन्द्र भी कहते हैं कि 'जगत् इष्ट नहीं आत्म से'-अर्थात् जो धर्मी है अथवा धर्म का वास्तविक जिज्ञासु है, उसे जगत् की अपेक्षा आत्मा प्रिय है, आत्मा की अपेक्षा जगत में उसे कोई प्रिय नहीं है।
देखो, गाय को अपने बछड़े के प्रति कैसा प्रेम होता है ! और बालक को अपनी माता के प्रति कैसा प्रेम होता है ! इसी प्रकार धर्मी को अपने रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग के प्रति अभेदबुद्धि से वात्सल्य होता है। इसमें राग की बात नहीं परन्तु रत्नत्रय में ही अभेदबुद्धि है, यही परम वात्सल्य है और अपने रत्नत्रय में परम वात्सल्य होने से बाहर में दूसरे जिन-जिन जीवों में रत्नत्रयधर्म देखता है, उनके प्रति भी वात्सल्य का उफान आये बिना नहीं रहता; दूसरे धर्मात्मा के प्रति साधर्मी के अन्तर में वात्सल्य का झरना प्रवाहित होता है, वह व्यवहार वात्सल्य है।
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