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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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६. सम्यग्दृष्टि का स्थितिकरण अङ्ग
उन्मार्ग जाते स्वात्म को भी, मार्ग में जो स्थापता। चिन्मूर्ति वो थितिकरणयुत, सम्यक्तदृष्टी जानना॥२३४॥ __ धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि, अन्तरस्वभाव की श्रद्धा के बल से अपने आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थिर रखता है; किसी भी प्रसङ्ग में भय से वह अपने आत्मा को मोक्षमार्ग से गिरने नहीं देता। यद्यपि अस्थिरता के रागादि होते हैं, तथापि ज्ञायकस्वभाव की श्रद्धा के बल के कारण वह मोक्षमार्ग से भ्रष्ट नहीं होता, श्रद्धा के बल से स्वयं अपने आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थिर रखता है-यही सम्यग्दृष्टि का स्थितिकरण अङ्ग है।
धर्मी को राग-द्वेष आदि के विकल्प तो आते हैं, परन्तु उसमें मोक्षमार्ग से विरुद्धता के विकल्प उन्हें नहीं आते, अर्थात् कुदेवकुगुरु-कुशास्त्र को पोषण करने का या रागादि से धर्म होता हैऐसी मिथ्यामान्यतारूप उन्मार्ग को पोषण करने का विकल्प तो उन्हें आता ही नहीं; और दूसरे अस्थिरता के जो विकल्प आते हैं, उन विकल्पों को भी ज्ञायकस्वभाव में एकाकाररूप से स्वीकार नहीं करते, अपने ज्ञायकस्वभाव को विकल्प से पृथक् का पृथक् ही देखते हैं; इसलिए सम्यग्दर्शनरूप मार्ग में स्थितिकरण तो उन्हें सदा ही वर्तता ही है परन्तु अस्थिरता से ज्ञान-चारित्ररूप मार्ग के प्रति किसी समय कदाचित् मन्द उत्साह हो जाये और वृत्ति डिग जाये तो अपने ज्ञायकस्वभाव के अवलम्बन की दृढ़ता से दृढ़रूप से अपने आत्मा को मार्ग में स्थिर करते हैं, अपने आत्मा को मार्ग
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