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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
से भ्रष्ट नहीं होने देते - ऐसा धर्मी का स्थितिकरण अङ्ग है। ऐसे स्थितिकरण के कारण धर्मी का आत्मा मार्ग से च्युत नहीं होता; इसलिए मार्ग से च्युत होने के कारण से होनेवाला बन्ध उन्हें नहीं होता परन्तु सम्यक्मार्ग की आराधना द्वारा निर्जरा ही होती है।
धर्मात्मा अपने आत्मा को मोक्षमार्ग से च्युत नहीं होते देता तथा दूसरे किसी साधर्मी को कदाचित् मोक्षमार्ग के प्रति निरुत्साही होकर डिगता देखे तो उसे उपदेश आदि द्वारा मोक्षमार्ग के प्रति उत्साहित करके दृढ़रूप से मार्ग में स्थिर करता है - ऐसा स्थितिकरण का शुभभाव भी धर्मी को सहज आ जाता है ।
कोई ऐसा जरा-सा डिगने का विचार आ जाये, वहाँ धर्मी, शुद्धस्वभाव की दृष्टि से अपने आत्मा को फिर से मोक्षमार्ग में दृढ़रूप से स्थिर करता है; इस प्रकार अपने आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थिर करना, वह निश्चयस्थितिकरण है और व्यवहार से दूसरे आत्मा को भी मोक्षमार्ग से च्युत होने का प्रसङ्ग देखकर उसे उपदेश आदि द्वारा मोक्षमार्ग में स्थिर करने का शुभभाव, धर्मी को आता है, वह व्यवहारस्थितिकरण है।
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'अहो ! ऐसा महापवित्र जैनधर्म ! ऐसा अपूर्व मोक्षमार्ग ! ! पूर्व में कभी नहीं आराधित ऐसा मोक्षमार्ग... उसे साधकर अब मोक्ष में जाने का अवसर आया है... तो उसमें प्रमाद या अनुत्साह कैसे होगा ?' इस प्रकार अनेक प्रकार से मोक्षमार्ग की महिमा प्रसिद्ध करके समकिती अपने आत्मा को तथा दूसरे के आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थिर करता है। इसका नाम स्थितिकरण है। ऐसा सम्यग्दृष्टि का स्थितिकरण अङ्ग है । •
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