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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
वृद्धि होती है, वह ही निर्जरा का कारण है । किञ्चित् निर्बलता से राग होता है परन्तु उस राग के प्रति धर्मी की दृष्टि का जोर नहीं है; धर्मी की दृष्टि का जोर तो अखण्ड ज्ञायकमूर्ति स्वभाव पर ही है; उस दृष्टि के जोर से शुद्धि की वृद्धि होकर कर्मों की निर्जरा ही होती जाती है। ऐसा सम्यग्दृष्टि का उपबृंहण अथवा उपगूहन अङ्ग है।
मनुष्यभव हारकर चला जाता है
विषयों के लिए पागल होकर जिन्दगी गँवा दी और फिर मरण के समय तीव्र आर्तध्यान करता है, परन्तु उससे क्या प्राप्त हो सकता है ? अरे रे ! मरण के समय कदाचित् 'भगवान.... भगवान...' करे, पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करे, परन्तु अन्तरङ्ग में सदा शरणभूत निज ज्ञायक भगवान को गुरुगम से पहचाना न हो, उसकी रुचि - प्रतीति-श्रद्धा नहीं की हो तो प्रभु स्मरण का शुभराग भी कहाँ शरण दे सकता है ?
भले ही करोड़ों रुपये इकट्ठे हुए हों, पचास-पचास लाख (आज के हिसाब से पाँच - दश करोड़) के राजमहल जैसे बँगले बनाये हों, पाँच-पाँच लाख (आज के हिसाब से पचास -पचास लाख) की कीमती मोटर गाड़ियाँ हों, नौकर-चाकर इत्यादि सब राजसी ठाट-बाट हों, परन्तु उससे क्या ? यह सब वैभव छोड़कर मरण की पीड़ा से पीड़ित होकर यह अज्ञानी जीव, मनुष्यभव हारकर चला जाता है; पशु और नरकगति में परिभ्रमण करता है।
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